भरत की साधना

(रघुवंशनाथम् भाग-3)

INR 699

Spiritual novel Bharat ki Saadhna by Eeshaan Mahesh. Part 3 of Ramkatha written by Eeshaan Mahesh available at Eeshaan Dhyan Mandir. Shri Ram and Bharat

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि लाभ-हानि, सुख-दुख, यश-अपयश ये सब विधाता के हाथ हैं। इस महावाक्य के दर्शन ‘भरत की साधना’ उपन्यास में हो रही हैं। भरत अपने ननीहाल से अयोध्या लौटते हैं और देखते हैं कि वहाँ अनहोनी घट गई है। कोई यह स्वीकार नहीं कर पर रहा है कि भरत सर्वथा निर्दोष और निष्पाप हैं। तात्कालीन परिस्थितियों में उनको श्रीराम के वनवास का दोषी मानकर, भारी कलंक झेलना पड़ा। समाज में घोर अपयश मिला। पिता का देहांत हो चुका है, माताएँ शोक से रो-रोकर बेहाल हैं। राम को चौदह वर्षों के लिए राज्य से निष्कासित कर, वनवास दे दिया गया है। अयोध्या में अराजकता की स्थिति हो गई है। अयोध्यावासी इस महान् दुर्घटना के पीछे भरत का षड्यंत्र ही देख रहे हैं और उनका सारा व्यवहार भरत को अपराधी घोषित कर रहा है। भरत को ऐसा लग रहा था कि अयोध्या का एक-एक कण उनको षड्यंत्रकारी के रूप में देख रहा है। उनके लिए अयोध्या में किसी से आँखें मिला पाना भी दुष्कर हो गया था। कोई इस बात को पचा ही नहीं पा रहा था कि भरत निष्पाप और निर्दोष है। उनको अपनी जननी कैकेयी के द्वारा दशरथ से माँगे जानेवाले वरों की कोई पूर्व जानकारी नहीं थी। ऐसी विकट स्थिति में भरत की कठोर परीक्षा हो रही है। उन्हें ऐसे समय में सबकुछ साधना है। यह काल उनकी साधना का प्रखर काल है। उनकी साधना अपयश के कलंक को धोकर; धर्मपूर्वक अपना कर्तव्यपालन करने की है। उनकी तपस्या में विधाता ने पग-पग पर काँटे बिछाए हुए हैं। उनके लहुलुहान पगों में वे काँटे तब तक चुभते रहते हैं, जब तक कि वे चित्रकूट में श्रीराम के श्रीचरणों में अपना शीश नहीं नवा लेते। यहाँ उनको आत्मग्लानि और अपराध-बोध से मुक्ति मिलती है और अपनी भातृभक्ति की साधना का फल प्राप्त होता है।

सीता के पिता सीरध्वज, सम्राट जनक को ‘विदेह’ क्यों कहा जाता है, इसका स्पष्टीकरण यह उपन्यास सूक्ष्म तथा गहरे अर्थवाली घटनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास त्याग, तपस्या और चिंतन का प्राण है।